कहा जाता है कि अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे का राजनीतिकरण राइटविंग पार्टियों ने किया लेकिन अगर हम इतिहास में देखें तो पाएंगे कि अयोध्या मुद्दे के राजनीतिकरण की जमीन तो कांग्रेस सरकारों के दौरान ही बन गयी थी और राइटविंग पार्टियों ने उसपर अपनी नीतियों के अनुरूप ईमारत खड़ी करने की कोशिश की.
देश में 1947 से 1996 तक कांग्रेस सरकारों का राज रहा है, बीच-बीच में कुछेक वर्षों को छोड़कर - मार्च 1977 से जनवरी 1980 के बीच जनता पार्टी और जनता पार्टी (सेक्युलर) की सरकारें और दिसंबर 1989 से जून 1991 के बीच जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी की सरकारें. और इसमें भी ध्यान देने की बात ये है कि जनता पार्टी (सेक्युलर) और समाजवादी जनता पार्टी की सरकारें कांग्रेस के समर्थन से बनी थीं.
22-23 दिसंबर 1949, राम लला का प्रकटीकरण: 22-23 दिसंबर की रात में अभिराम दास ने अपने साथियों के साथ राम लला और सीता जी की मूर्तियां बाबरी मस्जिद में रखीं थीं, जैसा कि मामले में दर्ज़ एफआईआर कहती है. बाबरी मस्जिद इसके पहले एक ढांचा हुआ करता था जहाँ मुस्लिम मस्जिद में नमाज़ अदा किया करते थे और हिन्दू राम चबूतरे पर पूजा किया करते थे और ये परंपरा सदियों से चली आ रही थीं. 23 दिसंबर 1949 के बाद इसमें वो बदलाव आया कि आने वाले वर्षों में इसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी. बाबरी मस्जिद एक विवादित ढांचा हो गया जो आज छह दशकों के बाद भी भारतीय समाज और राजनीति को प्रभावित कर रहा है. 1949 में
केंद्र में और उत्तर प्रदेश दोनों में कांग्रेस सरकारें थीं फिर भी प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू एक बार भी अयोध्या नहीं गए, हालाँकि मूर्ति रखे जाने की घटना से कहा जाता है वो काफी व्यथित हुए थे और क्रोधित भी थे.
19 फरवरी 1981, मीनाक्षीपुरम धर्मान्तरण: तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के मीनाक्षीपुरम गावं में 200 दलित परिवारों के इस्लाम धर्म अपनाने पर देश की राजनीति में भूचाल आ गया. मीनाक्षीपुरम गावं जहाँ पहले सिर्फ दो मुस्लिम परिवार थे, रहमत नगर हो गया. बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद्, आर्य समाज जैसे संगठनों ने गावं का दौरा किया और अटल बिहारी वाजपई ने मुद्दे को संसद में उठाया. मीनाक्षीपुरम धर्मान्तरण के बाद ही कहा जाता है कि अयोध्या और राम मंदिर का मुद्दा हिन्दू संगठनों की राजनीती की धुरी बन गया. वीएचपी ने तो अप्रैल 1984 में दिल्ली में धर्म संसद बुलाई जिसमें ये फैसला लिया गया कि मीनाक्षीपुरम धर्मान्तरण स्वीकार्य नहीं था और हिंदुत्व की रक्षा और बढ़ोत्तरी के लिए अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जाये.
1984 का शाह बानो केस: शाह बानो केस मुस्लिम महिलाओं के अधिकार के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता था अगर राजीव गाँधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कानून लाकर पलटा नहीं होता. सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में तलाक़ मामले में गुजरा-भत्ते को लेकर फैसला दिया था जिसे लेकर मुस्लिम समुदाय के धर्म गुरुओं में काफी बेचैनी थी. चुनाव के वर्ष में राजीव गाँधी दबाव को झेल नहीं पाए और मुस्लिम धर्म गुरुओं को खुश करने के लिए एक 62 वर्षीय तलाकशुदा महिला और उसकी पांच संतानों को को उनके वाजिब हक़ से वंचित कर दिया. ऐसा करके राजीव ने मुस्लिम धर्म गुरुओं को तो खुश कर दिया लेकिन हिन्दू सगठनों को भी मौका दे दिया अपनी राजनीति को चमकाने के लिए. हिन्दू धर्म गुरुओं ने और हिंदुत्ववादी संगठनों ने ये कहना शुरू कर दिया कि जो सरकार मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए सुप्रीम कोर्ट तक के आदेश को बदल सकती थी, वो हिन्दुओं के हितों की रक्षा कैसे कर सकती थी.
1 फरवरी 1986, जब मंदिर के दरवाज़े खुले: 1 फरवरी 1986 को फैज़ाबाद की स्थानीय अदालत के फैसले के बाद मंदिर का दरवाज़ा जो दशकों से बंद था तुरंत खोल दिया गया. उत्तर प्रदेश और केंद्र की कांग्रेस सरकारों ने फैसले के खिलाफ अपील करने की जहमत ही नहीं उठाई. राजीव गाँधी की सरकार का ये फैसला ये भी बताता है कि कहीं न कहीं वो राइटविंग पार्टियों के राजनीति में बढ़ते दखल और समाज में उनके बढ़ते प्रभाव से दबाव में आने लगे थे. ये सामने निकल कर तब आया जब उन्होंने ने 1989 के लोक सभा चुनाव अभियान की शुरुआत अयोध्या से की और देश की जनता को राम राज्य देने का वादा किया. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी ने भी अपनी किताब 'द टर्बुलेंट इयर्स:
1980-96' में लिखा है कि राजीव गाँधी का राम मंदिर को खोलने का फैसला एक त्रुटिपूर्ण निर्णय था.
10 नवम्बर 1989, राम मंदिर शिलान्यास:
हालाँकि वीएचपी कई दिनों से इसकी तयारी कर रही थी और तारीख का ऐलान भी कर दिया था, दोनों कांग्रेस सरकारें, उत्तर प्रदेश और केंद्र की, शिलान्यास को रोकने में विफल रहीं, जबकि कोर्ट का आदेश शिलान्यास के खिलाफ था. और तो और, राजीव गाँधी के रक्षा मंत्री वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के मुद्दे पर उनसे विद्रोह कर दिया था और जनता दल बना ली थी और इसका भी दबाव राजीव गाँधी पर बढ़ता जा रहा था. शिलान्यास के बाद घटनाएं तेजी से घटीं जिनकी परिणति 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के रूप में हुई.
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