किसी इन्द्रधनुष सा,
और गीली सुगंध,
बारिश से भीगी मिटटी की,
ये मिलना दोनों का था,
जैसा ये हमेशा हुआ करता था,
क्षितिज के दोनों किनारे,
बातें करते हुए, आपस में,
और उस रेखा से,
जिसने उन्हें मिलाया था,
दो आत्माओं के मध्य,
प्रकृति के आलिंगन में,
मिलना ये ऐसा था,
के शब्द अपने पथ पर थे,
अपने अर्थों से मिलते हुए,
मौन का ये अनुसरण,
इसे और स्पष्ट बना रहा था,
इस शाम के इन्द्रधनुष सा,
रंग जिसके आशाओं के थे,
जो तुम्हारी सुगंध से मिलकर,
मुझे ले गए उन यादों में,
जब हम बातें किया करते थे,
रंगों की, जीवन की, और खुद की..