ओ मेरे नीलकंठ शब्दों के!
वन-उपवन चौकड़ियाँ भरकर
मनमाने कूजते विहंगम,
खुद की कस्तूरी की खुशबू से
होकर उन्मत्त किसी मृग-जैसे
दूर कहीं अनजानी राहों पर
भटक यों न जाना
कि वापस न आ सको,
ओ मेरे नीलकंठ यादों के!
अधरों के पिंजड़े से छूटे
उर के उन्मुक्त गगन-पंछी,
बंदी न हर्गिज़ तुम मेरे
और हुए बंदी कब किसके?
कारा के दरवाज़े खोलो,
बेड़ियों की जंजीरें तोड़ो,
इन्द्रधनुषी स्वप्नों की घाटी पर
उड़ते पतंग-जैसे खेलो,
रेशमी धागों से बंधे हुए
कीर, विहग स्वर के,
फैलाए पंख आज भावों के
उड़ो....उड़ो....और उड़ो--
नीलकंठ, शब्दों के!